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जब मिला मुझे मेरा ही हमशक्ल ……

जब मिला मुझे मेरा ही हमशक्ल …… (पार्ट -1)- 


एक सुबह मुझे उमेश की हवेली में बुलाया गया। मैं यह सोचते हुए गया कि शायद उसकी पुरानी हांफने वाली बीमारी लौट आई है। उमेश व्यस्त था और मुझे एक कमरे में इंतजार करने को कहा गया। चंद लमहे बाद एक दरवाजा खुला। मुझसे उम्र में लगभग 4-5 साल बडा एक शख्स अंदर आया। मैंने उसे देखा तो हैरान रह गया। हम दोनों हूबहू एक जैसे थे। इतनी समानता कैसे? यह तो मैं ही था। यों महसूस हुआ जैसे कोई मेरे साथ चल रहा हो और जिस दरवाजे से मैं पहले दाखिल हुआ था, उसके सामने वाले दरवाजे से मुझे दोबारा अंदर लाया गया हो। आंखें चार होते ही हमने एक-दूसरे को सलाम किया, लेकिन वह उतना हैरान नहीं था। फिर मुझे लगा शायद मुझे कोई भ्रम हुआ है। मुझे आईना देखे ही एक साल हो गया है। उसके चेहरे पर दाढी थी, जबकि मैं सफाचट था।


सोच ही रहा था कि दरवाजा खुला और मुझे अंदर आने को कहा गया। उमेश मेरे हमशक्ल के पीछे बैठा था। मैंने उमेश को बोसा दिया। फिर इरादा किया कि जब वह मेरी खैरियत पूछेगा तो मैं अपनी काल कोठरी की तकलीफें बयान करूंगा और कहूंगा कि अब मैं वतन लौटना चाहता हूं। मगर वह सुन ही नहीं रहा था। लगता था, उमेश को याद था कि मैं विज्ञान, खगोल-विद्या, इंजीनियरिंग जानता हूं। उसने पूछा- तो क्या आसमान पर की जाने वाली आतिशबाजियों के बारे में भी मुझे कुछ आता है? बारूद के बारे में? मैंने फौरन कहा- हां, लेकिन जिस लमहे मेरी आंखें दूसरे आदमी की आंखों से चार हुई, मुझे शक हुआ कि कहीं ये लोग मेरे लिए कोई जाल न बिछा रहे हों।


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दरअसल उमेश अपनी शादी के मंसूबे बना रहा था। उसे वह अद्वितीय ढंग से करना चाहता था, जिसमें आसमान पर की जाने वाली आतिशबाजी भी शामिल थी। मेरे हमशक्ल को उमेश खोजा (आका) कह रहा था। हमशक्ल ने कहा, पुराने समय में सुल्तान की पैदाइश के मौके पर आतिशबाजी का बंदोबस्त किया था। उमेश का ख्याल था कि मैं इस मामले में उसकी मदद कर सकूंगा। अगर तमाशा अच्छा पेश किया गया तो ईनाम मिलेगा। मैंने हिम्मत करके उमेश से कहा कि मैं अब अपने घर लौटना चाहता हूं तो बदले में उमेश ने मुझसे पूछा, यहां आने के बाद कभी चकले (कोठे) की तरफ गए हो? मैंने इनकार किया तो वह बोला, अगर तुम्हें स्त्री की चाह नहीं तो कोठरी से आजादी हासिल करने से क्या होगा? वह चौकीदारों से असभ्य भाषा में बात कर रहा था। मेरे चेहरे के परेशान हाव-भाव देख कर उसने दिल खोल कर कहकहा लगाया।


सुबह जब मैं अपने हमशक्ल के कमरे की ओर जा रहा था तो मुझे लगा कि मेरे पास उसे सिखाने को कुछ नहीं, मगर हकीकत में उसका इल्म भी मेरे इल्म से ज्यादा नहीं था। हम एकमत थे कि नाप-तोल कर सावधानी से प्रायोगिक बुरादा तैयार करें और रात को सुरदिबी के पास शहर की बुलंद फसीलों के साए में उन्हें दागें और फिर उसका निरीक्षण करें। बच्चे अचंभित होकर हमारे कारिंदों को रॉकेट छोडते देखते और हम अंधेरे में पेडों के नीचे चिंतित खडे नतीजे का इंतजार करते। इन प्रयोगों के बाद कभी चांदनी में तो कभी घोर अंधेरे में मैं अपने अनुभव एक छोटी-सी नोटबुक में लिखता। रात गुजरने से पहले हम खोजा के कमरे में लौटते, जिससे गोल्डन हॉर्न का दृश्य दिखाई देता था। हम बडी तफ्सील से उन पर बहस करते।


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